जसवंत सिंह रावत भारतीय सेना के एक महान सिपाही थे, जिन्हें 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान उनकी अद्वितीय बहादुरी के लिए एक नायक के रूप में याद किया जाता है। उनका जन्म 1941 में उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले के बैर्यूं गांव में हुआ था। उनकी वीरता और बलिदान ने उन्हें देशभक्ति और साहस का एक अमर प्रतीक बना दिया है।
जसवंत सिंह रावत भारतीय सेना की 4 गढ़वाल राइफल्स रेजिमेंट के एक राइफलमैन थे। युद्ध के दौरान उन्होंने नुरानांग की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो अरुणाचल प्रदेश (तत्कालीन नेफा) में लड़ी गई थी। इस लड़ाई में उन्हें और उनके साथियों को चीनी सेना के भारी हमले के खिलाफ अपने मोर्चे की रक्षा करने का काम सौंपा गया था।
जसवंत सिंह ने दो स्थानीय मोनपा लड़कियों, सेला और नूरा, के साथ मिलकर एक रणनीतिक रक्षा योजना बनाई और तीन दिनों तक चीनी सेना को आगे बढ़ने से रोके रखा। गुरिल्ला रणनीति और अदम्य साहस का उपयोग करते हुए, उन्होंने दुश्मन को भारी नुकसान पहुंचाया।
यहां तक कि जब उनके साथी शहीद हो गए, तब भी जसवंत सिंह ने अकेले लड़ाई जारी रखी। उन्होंने कई हथियारों का उपयोग करके दुश्मन को यह भ्रम दिया, जिससे भारतीय सेना को फिर से संगठित होने के लिए महत्वपूर्ण समय मिला।
जसवंत सिंह अंततः शहीद हो गए, लेकिन उनका बलिदान युद्ध का एक निर्णायक क्षण बन गया। चीनी सेना उनकी बहादुरी से इतनी प्रभावित हुई कि उन्होंने reportedly उनके सामान, जिसमें उनकी राइफल भी शामिल थी, को युद्ध के बाद लौटा दिया।
जसवंत सिंह रावत की कहानी उत्तराखंड के लोगों के दिलों में गहराई से बसती है, जो सैन्य सेवा की अपनी लंबी परंपरा के लिए जाने जाते हैं। उनकी वीरता पूरे देश के लिए प्रेरणा और गर्व का स्रोत है।
जसवंत सिंह रावत की विरासत भारतीय सैनिक की साहस, दृढ़ता और निःस्वार्थता का प्रतीक है, जो “स्वयं से पहले सेवा” की भावना को दर्शाती है।